प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- मौर्यकालीन सिक्कों की विस्तृत जानकारी प्रस्तुत कीजिए।
अथवा
मौर्यों की मुद्राओं के विषय में आप क्या जानते हैं स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
मौर्यकालीन सिक्के - भारत में समस्त कार्षापण ढेर (पंचमार्क) के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि विभिन्न जनपद में सिक्के निर्मित होने रहे। उत्तर पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत राजस्थान, उड़ीसा दक्षिण भारत में जितने ढेर उपलब्ध हुए हैं उनसे प्रकट होता है कि सिक्के तैयार करने के अतिरिक्त व्यापार के माध्यम से सिक्को का आदान-प्रदान होता रहा।
टकसाल पर निगरानी रखी गयी तथा लक्षणाध्यक्ष की नियुक्ति की गयी। पूर्व मौर्य युग में सिक्कों की भद्दी बनावट दिखायी पड़ती है। उस समय चिन्हों पर ही विशेष ध्यान दिया जाता था। बौद्ध ग्रन्थों में (विनयपिटक, जातक आदि) पाद नाम के सिक्कों का उल्लेख हुआ है। राजगृह में सिक्कों का प्रचलन का उल्लेख है। शतमान (100 ) नामक सिक्के भी तक्षशिला तथा गोलकपुर (पटना) ढ़ेर से प्राप्त हुए हैं, जो पूर्व मौर्यकालीन माने गये हैं। 25 या 32 ग्रेन के सिक्के बनते रहे। बीजमुद्रा, षड़चक्र, पूर्णछट या षटकोण अथवा पर्वत खरहा भी मौर्यकाल से पूर्व के चिन्ह समझे- जाते हैं। अनेक सिक्कों पर बोधिवृक्ष या ब्राह्मी में (4) का चिन्ह खुदा है।
नन्दकाल से भारतीय समाज का जो आर्थिक एवं व्यवसायी ढाँचा दिखायी देता है। मौर्य युग में वह अधिक ठोस रूप धारण कर लिया। श्रेणियाँ तो उसकी बुनियाद थीं। शिल्प तथा वाणिज्य नन्द युग से फूलता - फलता रह्य, मौर्यकाल में सारे व्यावसायिक काम आर्थिक व्यवस्था के परिपक्क स्थिति के बोधक हैं। शिल्प तथा वाणिज्य की उन्नति का परिणाम देश की समृद्धि थी। मौर्ययुग में ऐसे सिक्के प्रसारित किए गये थे। पाद (1/4 कार्षापण) पाँचमासा (कौटिल्य 2/12) तथा 1/2 पाद मनु (8/404) तौल के बराबर होंगे। अष्टाध्यायी (5/1/34) में द्विमासक कहे गये है।
मौर्य वंश के सिक्कों का वर्णन करते समय यह बतलाने की थोड़ी सी आवश्यकता है कि किस परिस्थिति में इतना बड़ा साम्राज्य स्थापित हो सका। विदेशियों के आक्रमण को रोककर चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध पर अधिकार किया। हिमालय से लेकर मैसूर तक तथा अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक का प्रदेश मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित था। अशोक ने कलिंग को सम्मिलित कर धर्म विजयी बनने की इच्छा से युद्ध को त्याग दिया। भारत के बाहर उसका राज्य अफगानिस्तान तक विस्तृत था। अतएव सर्वत्र शान्ति रखने के लिए विशाल सेना रखनी पड़ी। चन्द्रगुप्त ने ही नंदों के सिक्कों को राजांक से विभूषित किया और सिक्के तैयार करने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। यद्यपि मौर्यकालीन सिक्के विशुद्ध चाँदी के नहीं मिलते, परन्तु सम्मिश्रण के साथ विभिन्न तौल के सिक्के चलाए गए। 32 रत्ती के पण को आधे मासक (ताँबा का सिक्का) को चौथाई कार्षापण के बराबर तैयार कराया। अर्द्धमासक और काकिनी (चौथाई मासक) की तरह छोटे सिक्के बनने लगे। इससे प्रकट होता है कि विशाल साम्राज्य की जनता तथा व्यापार के लिए नाना प्रकार के सिक्के निकालने की आवश्यकता थी। कौटिल्य द्वारा वर्णित व्यापार व्यवसाय, स्वर्णकार, तंतुवाय, खननकार (भू-गर्भ से धातु निकालना) तथा अन्य विदेशी व्यापार का वर्णन मौर्य युग की समृद्धि का द्योतक है। आश्चर्य यह है कि अशोक के किसी टकसाल का पता नहीं है।
मौर्य सिक्कों पर बीज मुद्रा तथा षड़चक्र के अतिरिक्त पर्वत पर मोर या चन्द्रमा मिलता है। विद्वानों ने मोर वाले चिन्ह से मौर्यवंश (मोरिया) का अर्थ निकाला है। मोर को मौर्य वंश का राज्य चिन्ह नहीं माना जा सकता। पर्वत पर चन्द्र मेरू वाला सिक्का अगणित संख्या में मिलता है। इसलिए वही राजांक माना जाता है। इस नतीजे पर सब लोग इस कारण पहुँचे हैं कि सोहगौरा ताम्रपत्र पर और पटना के समीप कुम्हरार नामक स्थान मंप मौर्य स्तम्भ पर मेरू वाला चिन्ह मिला है, जिसकी तिथि ईसा पू. 330 बतलाई जाती है। बुलंदी बाग की खुदाई में मौर्य सतह ( 15 से 18 फुट नीचे) से एक मिटटी की तश्तरी मिली है, जिस पर भी मेरू का चिन्ह विद्यमान है। तीसरे वैज्ञानिक प्रमाण से उन बातों की अधिक पुष्टि हो जाती है। मेरू चिन्ह वाले सिक्कों की रासायनिक परीक्षा की गयी। उसमें धातु मिश्रण का वही अनुपात मिला है, जिसका उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में पाया जाता है। इन प्रमाणों के बल पर मेरू वाला चिन्ह मौर्यवंश का राज्य चिन्ह माना जाता है।
सिक्कों का प्राप्ति स्थान
प्राचीन भारत के भौगोलिक विस्तार का ज्ञान रखकर आधुनिक भारतीय सीमा को भूल जाना पड़ता है। अफगानिस्तान का वर्तमान क्षेत्र भारत की सीमा के अन्तर्गत था। भारतीय नरेश चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के अधिकार के अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक तथा उत्तर से मैसूर तक के प्रदेश रहे। उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में पेशावर, तक्षशिला और कांगरा के ढेर में कार्षापण (पंचमार्क) पाए जाते हैं। अधिकतर इन सिक्कों के प्राप्ति-स्थान गंगा की घाटी में स्थित हैं।
मौर्य एवं शुंग-काल में मथुरा से व्यावसायिक मार्ग विकेन्द्रित होते थे। ईसवी सन् के आरम्भ से उत्तरी भारत में कार्षापण का प्रचलन प्रायः बन्द सा हो गया, किन्तु दक्षिण में उनका अच्छा प्रसार था। इसे आश्चर्यमय घटना कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। सम्भवतः पंजाब तथा उत्तरी भारत में विदेशी सिक्कों के प्रचलन से कार्षापण का निर्माण बन्द हो गया। इसका एक कारण यह हो सकता है कि आहत शैली को त्यागकर कार्षापण सांचे में ढाले जाने लगे।
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- प्रश्न- प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में अभिलेखों का क्या महत्व है?
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